प्रेमचंद का भारतीय चित्रकला पर ‘ ज़माना ‘ के अक्टूबर, 1910 के अंक में छपे एक लेख से —
“भारत की राष्ट्रीय जागृति का सबसे महत्वपूर्ण और शुभ परिणाम वे बैंक और डाकखाने नहीं हैं जो पिछले कुछ सालों से स्थापित हुए और होते जाते हैं, न वे विद्यालय हैं जो देश के हर भाग में खुलते जाते हैं बल्कि वह गौरव जो हमें अपने प्राचीन उद्योग-धंधों और ज्ञान-विज्ञान और साहित्य पर होने लगा है और वह आदर का भाव जिससे हम अपने देश की कारीगरी के प्राचीन स्मारकों को देखने लगे हैं.”
यह वही समय है जब आनंद कुमार स्वामी भारतीय कला पर चर्चा के मार्फ़त एक स्वदेशी समाज दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे. यह वही समय है जब गांधीजी ने हिन्द स्वराज के मार्फ़त स्वदेशी समाज बोध को आकार दिया. भारत तब फिर से अपने उन दर्शनों की ओर मुड़ रहा था जो स्वदेशी समाज बोध और लोकप्रिय व लोकहितकारी प्रगति के मानक गढ़ने के आधार देते थे.
आगामी रविवार, 28 जुलाई को दर्शन अखाड़ा पर इन्हीं बातों की चर्चा की जानी है . प्रेमचंद के मार्फ़त भारतीय दर्शन की लोकोन्मुख और लोकप्रिय समझ के समकालीन रुपों की तलाश की जानी है.