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भाषा

भाषा का सवाल  

  • भाषा मनुष्य के रचना-धर्म, कर्म, चिंतन, आध्यात्मिक अनुभव और संवाद में अवस्थित होती है. मनुष्य अपनी भाषा में सहज ही इन क्रियाओं में पहल लेता है और तरह तरह की मंजिलें  हासिल करता है.
  • भाषा में सही गलत की कसौटी सामान्य भाषा यानि आम लोगों की भाषा (लोकभाषा) में होती है.
  • ज्ञान के विशाल और गहरे सागर लोकभाषाओं में होते हैं .
  • लोकभाषा में जो संवाद होते हैं उनके परिवेश अधिकांश परिवार, बिरादरी, गाँव/बस्ती/ मोहल्ला और अंचल/इलाके होते हैं . आधुनिक दुनिया में ये सब स्थान सार्वजनिक क्षेत्र का दर्जा नहीं पाते. इसके चलते ये संवाद सीमित अथवा निजी संवाद के दायरे में रह जाते हैं. लोकभाषा की प्रतिष्ठा इन सारे संवादों को सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठित करने और आम लोगों और मुख्य धारा के बीच संवाद स्थापित करने का सशक्त माध्यम हो सकती हैं .

‘अंग्रेजी हटाओ, भारतीय भाषा बचाओ’ सम्मेलन, वाराणसी

23 मार्च 2018 को वाराणसी में एक ‘अंग्रेजी हटाओ, भारतीय भाषा बचाओ’ सम्मेलन हुआ. 1960 के दशक में एक अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन हुआ था, जिसका आवाहन डा. राम मनोहर लोहिया ने किया था, उसके 50 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में यह आयोजन हुआ. 23 मार्च डा. राम मनोहर लोहियाका जन्म दिन है .  इस सम्मेलन के आयोजनकर्ता अधिकांश लोहियावादी समाजवादी रहे . अंग्रेजी हटाओ और लोकभाषाओं /भारतीय भाषाओं को उनका न्यायोचित स्थान मिले, दोनों ही बातों पर बराबर का जोर रहा. कहा जा  सकता है कि निम्नलिखित बिन्दु उभर कर आये.

  • शिक्षा भारतीय भाषाओं में होनी चाहिए . यह शिक्षा ठीक से हो और सामान्य लोगों के लिए शिक्षा के मार्फ़त रोज़गार के अवसर खुलें.
  • सभी प्रतियोगी परीक्षायें भारतीय भाषाओं  में होनी चाहिए.  ऐसा होने से व्यापक समाज के लोगों को न्यायोचित अवसर मिलेंगे तथा उनके प्रति भेदभाव कम होगा.
  • उच्च एवं उच्चतम न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति होनी चाहिए. इससे सभी को जिरह करने और समझने के मौके मिलेंगे. अभी तो फैसला तक समझने के लिए अंग्रेजी जानने वालों का सहारा लेना पड़ता है .
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के आलावा हर स्तर पर देसी भाषाओं के प्रयोग को बढ़ावा मिलना चाहिए.
  • भाषा से मनुष्य की पहचान है तथा अपनी भाषा मनुष्य के रचना धर्म और आध्यात्मिक अनुभव का माध्यम होती है. इसलिए किसी भी समाज की रचना – पुनर्रचना और उद्धार में उसकी अपनी भाषा की भूमिका निर्णायक होती है .

इन सभी बिन्दुओं पर विस्तार से विचार आये तथा वक्ताओं ने गहराई में इनका महत्व समझाया . यह भी स्पष्ट हुआ कि आज अंग्रेजी और उसके दबदबे का आधार उच्च शिक्षा तथा उच्च शिक्षित जनों में है .

यह एक अच्छी शुरुआत है. अंग्रेजी और लोकभाषाओं की भूमिका पर लोगों में तरह-तरह के विचार मिलते हैं . आवश्यकता एक ऐसे भाषा आन्दोलन की है जिसमें सभी तरह का विचार रखने वालों को अपनी बात कहने की छूट हो . यह पहचानने की ज़रुरत है कि समाज एक बड़े परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा है . १९९० के बाद से वैश्वीकरण और नई संवाद तकनीकी के चलते तरह तरह के राजनैतिक और सामाजिक बदलाव हो रहे हैं . इसे अगर हम एक संवाद युग के नाम से पहचानें तो भाषा का सवाल आज क्या रूप ले रहा है यह समझने को एक दिशा मिलेगी  तथा लोक भाषाओं को मजबूती देने व इसके मार्फ़त न्यायोचित बदलाव के नए नए उपाय सोचे जा सकेंगे.

यह कर पाने के लिए भाषा मनुष्य के जीवन में कैसे गुँथी हुई है यह समझना होगा. इसकी शुरुआत हम यह समझने से करेंगे कि भाषा की विभिन्न जीवन-क्रियाओं में कैसी भूमिका होती है – जैसे दर्शन, ज्ञान, रचना, सृजन, न्याय, आत्मसम्मान, संवाद, सत्याग्रह, पंचायत, शिक्षा, रोज़गार, जीवनशैली, आध्यात्मिक अनुभव, मनोरंजन, खेल, इत्यादि में.

 

 

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